नोट – पंचकर्म किसी कुशल वैद्य की निगरानी में हीं करें
पंचकर्म आयुर्वेद का एक प्रमुख शुद्धिकरण एवं मद्यहरण उपचार है। पंचकर्म का अर्थ पाँच विभिन्न चिकित्साओं का संमिश्रण है। इस प्रक्रिया का प्रयोग शरीर को बीमारियों एवं कुपोषण द्वारा छोड़े गये विषैले पदार्थों से निर्मल करने के लिये होता है। आयुर्वेद कहता है कि असंतुलित दोष अपशिष्ट पदार्थ उतपन्न करता है जिसे ’अम’ कहा जाता है। यह दुर्गंधयुक्त, चिपचिपा, हानिकारक पदार्थ होता है जिसे शरीर से यथासंभव संपूर्ण रूप से निकालना आवश्यक है। ’अम’ के निर्माण को रोकने के लिये आयुर्वेदिक साहित्य व्यक्ति को उचित आहार देने के साथ उपयुक्त जीवन शैली, आदतें तथा व्यायाम पर रखने, तथा पंचकर्म जैसे एक उचित निर्मलीकरण कार्यक्रम को लागू करने की सलाह देते हैं।यह हमारे दोषों में संतुलन वापस लाता है एवं स्वेद ग्रंथियों, मूत्र मार्ग, आँतों आदि अपशिष्ट पदार्थों को उत्सर्जित करने वाले मार्गों के माध्यम से शरीर से ’अम’ को साफ करता है। पंचकर्म, इस प्रकार, एक संतुलित कार्य प्रणाली हैI इसमें प्रतिदिन मालिश शामिल है और यह एक अत्यंत सुखद अनुभव है। हमारे मन एवं शरीर व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिये आयुर्वेद पंचकर्म को एक मौसमी उपचार के रूप में सलाह देता है।
पाँच विभिन्न चिकित्सा(सामान्यत: पाँच चिकित्साओं के केवल कुछ भागों की ही आवश्यकता होती है।)
वमन (उपचारात्मक उल्टी)
इस उपचार का प्रयोग तब किया जाता है जब फ़ेफड़े मे संकुलनता होती है जिसके कारण बार-बार श्वासनली-शोथ, खाँसी, ठंड या दमा के दौरे आते हैंI यह औषधियुक्त उल्टी चिकित्सा है जो शरीर एवं श्वास-नली में एकत्रित कफ (दोषों में से एक) विषों को दूर करता है। यह उन लोगों को दिया जाता है जिनमें उच्च कफ असंतुलन पाया जाता है। इस चिकित्सा का उद्देश्य आधिक्य कफ से छूटकारा पाने हेतु उल्टी के लिये प्रवृत्त कराना है। मुलैठी एवं मधु का बना हुआ एक पेय या पिच्छाक्ष के जड़ की चाय रोगी को दी जाती है। (अन्य प्रयुक्त पदार्थ नमक एवं इलायची) जीभ रगड़कर उल्टी के लिये प्रेरित किया जाता है।
4-8 उल्टी का लक्ष्य रहता है। उल्टी के बाद रोगी बहुत आराम महसूस करता है। शिरानाल की सफाई के साथ अधिकांश संकुलता, घरघराहट एवं श्वासहीनता गायब हो जाती है। उपचारात्मक उल्टी का प्रयोग खाँसी, ठंड, दमा के लक्षण, ज्वर,मिचली, भूख की कमी, रक्तहीनता, विषाक्तता, चर्म रोग, मधुमेह, लसीका के अवरोध, चिरकालिक अजीर्ण, शोफ (सूजन), मिर्गी (दौरे के दौरान), चिरकालिक शिरानाल की समस्या, चिरकालिक प्रत्यूर्जता, परागज ज्वर, श्वेत्कुष्ठ, त्वचा रोग, उच्च अम्लता, मोटापा, मनोवैज्ञानिक विकार एवं गल्तुण्डिका-शोथ के बार-बार होनेवाले दौरे आदि के लिये किया जाता है। वमन के बाद, विश्राम, निराहार रहने एवं स्वभाविक इच्छाएँ (अर्थात मूत्र त्याग, मलत्याग, वायु विकार, छींक, खाँसी) को नहीं दबाने की सलाह दी जाती है। यदि वमन का उचित ढ़ंग से प्रयोग किया जाता है, तो व्यक्ति को फ़ेंफड़े में आराम महसूस करेगा, मुक्त होकर श्वास ले पायेगा, सीने में हल्कापन, स्वच्छ विचार, एक स्पष्ट आवाज, एक अच्छी भूख होगी, एवं संकुलता के सभी लक्षण समाप्त हो जायेंगे।
विरेचन (परिष्करण चिकित्सा)
जब पित्ताशय, यकृत, एवं छोटी आँत से आधिक्य पित्त स्रावित एवं वहाँ जमा होता है तो इसकी परिणति फुन्सी, त्वचा के जलन, मुँहासे, चिरकालिक ज्वर के दौरे, पैत्तिक उल्टी, मिचली एवं पीलिया के रूप में होती है। विरेचन एक औषधियुक्त परिष्करण चिकित्सा है जो शरीर से पित्त विषजीव को हटाता है, यह जठरांत्र पथ का पूर्णतया शोधन करता है एवं रक्त विषजीव का शुद्धिकरण करता है। विरेचन स्वेद ग्रंथियों, छोटी आँत, मलाशय, वृक्क, पेट, यकृत एवं प्लीहा का शोधन करता है। विभिन्न उत्कृष्ट जड़ी-बूटियाँ विरेचक-औषधि के रूप में प्रयुक्त होती हैं। इनमें रंगलता, आलूबुखारा, चोकर, अलसी का भूसी, दुग्धतिक्ता का जड़, रेचक स्निग्धजीर का बीज, गाय का दूध, नमक, अरंडी का तेल, किशमिश एवं आमरस शामिल हैं। इन विरेचक-औषधियों का प्रयोग करने पर सीमित आहार का पालन करना महत्वपूर्ण है। यह बिना पक्षीय प्रभाव के एक सुरक्षित प्रक्रिया है। विरेचन के लाभ चिरकालिक ज्वर, मधुमेह, दमा, चर्म विकार जैसे कि विसर्पिका, शरीर के निचले हिस्से में पक्षाघात, आंशिक पक्षाघात, जोड़ों की बीमारी, पाचन संबंधी बीमारी,कब्ज, उच्च अम्लता, श्वेत कुष्ठ, त्वचा रोग, सिरदर्द, बवासीर, उदरीय अर्बुद, कृमि, गठिया, पीलिया, जठरांत्रिय समस्याएँ, उद्दीप्य आन्त्र सहलक्षण, श्लीपद एवं स्त्रीरोगों को जड़ से नष्ट करने में मदद करती हैं। विरेचक अत्यधिक पित्त की समस्या का पूर्णत: उपचार करता है। जब विरेचकों का प्रयोग किया जाता है, तो मरीज को ऐसा भोजन नहीं करना चाहिये जो प्रबल शरीरी द्रव को बढ़ा देता है या तीनों शरीरी द्रव को असंतुलित कर देता है।
बस्ती(एनीमा)
बस्ती(एनीमा) सभी पंचकर्म उपचार की जननी है क्योंकि यह सभी 3 दोषों, वात, पित्त एवं कफ द्वारा एकत्रित जीवविषों को मलाशय से बाहर निकालता है। औषधियुक्त एनीमा का प्रयोग विभिन्न विशेष कारणों के लिये किया जाता है। सामान्य रूप से, इस उपचार का प्रयोग आँत नली से ढ़ीले दोषों को साफ करने के लिये किया जाता है। आयुर्वेद में सूचीबद्ध लगभग 100 विशेष एनीमा हैं। वस्तिकर्म के अन्तर्गत औषधियुक्त पदार्थों जैसे कि तिल का तेल, पिच्छाक्ष का तेल या अन्य जड़ीयुक्त काढ़ा का एक द्रव माध्यम के द्वारा मलाशय में प्रयोग करना है। वस्ति वात विकार का सबसे प्रभावकारी उपचार है। यह सूजन, चिरकालिक ज्वर, साधारण जुकाम, यौन रोग, गुर्दे में पत्थर, हृदय पीड़ा, उल्टी, पीठ-दर्द, गर्दन-दर्द, उच्च अम्लता, आंशिक पक्षाघात, शरीर के निचले हिस्से में पक्षघात, बृहदांत्र-शोथ, स्वास्थ्यलाभ, ग्रैव स्पॉन्डिलोसिस, उद्दीप्य आन्त्र सहलक्षण, कब्ज, पाचन विकार, यकृत में वृद्धि, प्लीहा में वृद्धि, मोटापा, बवासीर, जनन-अक्षमता, साइटिका एवं जोड़ों के अन्य दर्द को कम करता है। अनेक अन्य वात विकार जैसे कि संधिशोथ, आमवात, गठिया, मांशपेशियों में ऐंठन एवं सिरदर्द का भी उपचार वस्ति के द्वारा हो सकता है। आयुर्वेद में वात से संबंधित लगभग 80 विकार है। उनमे से लभग 80 प्रतिशत का उपचार औषधियुक्त एनीमा के प्रयोग के द्वारा किया जा सकता है। वात मुख्य रूप से बड़ी आँत में स्थित है, लेकिन अस्थि ऊतक भी वात के स्थान हैंI इसलिये गुदा (मलाशय) के द्वारा औषधि का प्रयोग अस्थि ऊतक को प्रभावित करता है। मलाशय की श्लेषमा झिल्ली अस्थि के बाह्य आवरण से संबंधित है जो अस्थियों का पोषण करती है। इसलिये गुदा से किसी भी औषधि का प्रयोग करने पर वह गहरे ऊतकों जैसे कि अस्थियों में जाती हैं एवं वात विकार को दूर करती है।
नास्य (नाक की सफाई)
नाक मस्तिष्क का द्वारमार्ग है और यह चेतना का भी द्वारमार्ग है। नाक के द्वारा औषधि का प्रयोग नास्य कहलाता है। शिरानाल,गला, नाक या सिर के हिस्सों में शरीरी द्रव के आधिक्य को निकटतम संभव छिद्र नाक के माध्यम से निकाल दिया जाता है। तंत्रिका ऊर्जा के रूप में जीवन शक्ति, प्राण, नाक द्वारा अंदर लिये गये साँस से शरीर में प्रवेश करता है। प्राण मस्तिष्क में रहता है एवं संवेदक तथा प्रेरक पेशी को कायम रखता है। प्राण मानसिक क्रिया-कलापों, स्मरण, ध्यान एवं बौद्धिक क्रियाओं को भी संचालित करता है। असंतुलित प्राण इन सभी क्रियाओं में अपूर्ण कार्य उत्पन्न करता है एवं सिरदर्द, ऐंठन, स्मरणहीनता एवं लघुकृत संवेदक अवबोधन पैदा करता है। नास्य के अन्तर्गत सिर तथा गर्दन के हिस्सों में जमा हुये कफ जीवविष को साफ करने के लिये औषधियुक्त तेल का नाक से होकर प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्गत उबलते हुये पानी में भिंगोये हुये औषधियुक्त जड़ी-बूटियों से निकलने वाले भाप को अंदर साँस लेना भी शामिल है। व्यक्ति की चिकित्सा स्थिति के आधार पर नास्य के के द्वारा त्रिशाखी तंत्रिकाशूल, बेल का पक्षाघात, स्मरण एवं दृष्टिशक्ति में सुधार, अनिद्रा, चेहरे में से आधिक्य अति रंजकतायुक्त श्लेष्मा की समाप्ति, समय से पूर्व बाल पकना, आवाज में स्पष्टता, विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले सिरदर्द, आंशिक पक्षाघात, गन्ध एवं स्वाद में कमी, नाक का सूखना, कर्कशता, अकड़ा हुआ कंधा, अधकपारी, गर्दन का कड़ापन, नासीय प्रत्यूर्जता, नासीय पुर्वंगक, तंत्रिका संबंधी दुष्क्रिया, शरीर के निचले हिस्से में पक्षाघात, शिरानालशोथ के उपचार में लाभ शामिल हैं। नास्य के द्वारा श्वसन क्रिया में भी सुधार लाया जा सकता है। नास्य के द्वारा श्वसन मार्ग में अवरूद्ध भावनाओं को मुक्त किया जायेगा। यह उपचार भावनाओं को खोलने में मदद करेगाI भावनाओं के मुक्त होने से श्वसन पद्धति भी बदल जायेगी।
रक्त मोक्षण (रक्त बहने देना)
रक्त बहने देने का प्रयोग जठरांत्र पथ के द्वारा रक्तप्रवाह में अवशोषित जीवविष को बाहर निकालने के लिये किया जाता है। जठरांत्र पथ में मौजूद जीवविष रक्त में अवशोषित हो जाते हैं एवं संपूर्ण शरीर में उनका परिसंचरण होता है। बार-बार होने वाले संक्रमण, उच्च तनाव एवं कुछ अन्य परिसंचरणात्मक स्थितियों का यह एक मूल कारण है। इसके अन्तर्गत बारंबार होने वाले चर्म रोगों के हमले जैसे कि पित्ती, फुन्सी, विसर्पिका, खाज, मुँहासे, खुजली, श्वेत कुष्ठ, चिरकालिक खुजलाहट या शीतपित्त शामिल हैं। इन स्थितियों में, आंतरिक औषधि के साथ-साथ जीवविष का निष्कासन एवं रक्त का शुद्धिकरण आवश्यक है। रक्त को बहाना विवर्द्धित यकृत, प्लीहा एवं गठिया की स्थितियों के लिये भी बताया जाता है। यकृत में असंगठित लाल रक्त कोशिकाओं के द्वारा पित्त तैयार होता हैI पित्त एवम रक्त का एक घनिष्ठ संबंध है। रक्त मोक्षण प्रक्रिया रक्त को शुद्ध करती है। रक्त को को बहाना प्लीहा को जिवविषरोधी पदार्थ उत्पन्न करने के लिये भी उत्तेजित करता है जिससे जो हमारे प्रतिरक्षी तंत्र को उत्तेजित करने में मदद करता है।जीवविष को निष्प्रभावित किया जाता है जिससे कई रक्तजनित बीमारियों का मूल उपचार संभव होता है। कुछ पदार्थ जैसे कि चीनी, नमक, खमीरयुक्त दही, खट्टे स्वाद वाले खाद पदार्थ एवं अल्कोहल रक्त के लिये जीवविष हैं। कुछ रक्त की बीमारियों में रक्त को शुद्ध रखने के लिये इन पदार्थों से परहेज करना चाहिये। रक्त मोक्षण प्रक्रिया रक्त साफ करने के लिये है एवं केवल असामान्य स्थितियों में ही सुझाया जाती है। सामान्य पन्चकर्म के दौरान इसकी सलाह नहीं दी जाती है। अधिकांश आयुर्वेद केन्द्र रक्त की सफाई में संक्रमण के अत्यधिक खतरे के कारण रक्त मोक्षण नहीं प्रदान करते हैं। हमारे योग पाठ्यक्रम में यह पंचकर्म कार्यक्रम का हिस्सा भी नहीं होगा।
पंचकर्म आयुर्वेद का एक प्रमुख शुद्धिकरण एवं मद्यहरण उपचार है। पंचकर्म का अर्थ पाँच विभिन्न चिकित्साओं का संमिश्रण है। इस प्रक्रिया का प्रयोग शरीर को बीमारियों एवं कुपोषण द्वारा छोड़े गये विषैले पदार्थों से निर्मल करने के लिये होता है। आयुर्वेद कहता है कि असंतुलित दोष अपशिष्ट पदार्थ उतपन्न करता है जिसे ’अम’ कहा जाता है। यह दुर्गंधयुक्त, चिपचिपा, हानिकारक पदार्थ होता है जिसे शरीर से यथासंभव संपूर्ण रूप से निकालना आवश्यक है। ’अम’ के निर्माण को रोकने के लिये आयुर्वेदिक साहित्य व्यक्ति को उचित आहार देने के साथ उपयुक्त जीवन शैली, आदतें तथा व्यायाम पर रखने, तथा पंचकर्म जैसे एक उचित निर्मलीकरण कार्यक्रम को लागू करने की सलाह देते हैं।यह हमारे दोषों में संतुलन वापस लाता है एवं स्वेद ग्रंथियों, मूत्र मार्ग, आँतों आदि अपशिष्ट पदार्थों को उत्सर्जित करने वाले मार्गों के माध्यम से शरीर से ’अम’ को साफ करता है। पंचकर्म, इस प्रकार, एक संतुलित कार्य प्रणाली हैI इसमें प्रतिदिन मालिश शामिल है और यह एक अत्यंत सुखद अनुभव है। हमारे मन एवं शरीर व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिये आयुर्वेद पंचकर्म को एक मौसमी उपचार के रूप में सलाह देता है।
पाँच विभिन्न चिकित्सा(सामान्यत: पाँच चिकित्साओं के केवल कुछ भागों की ही आवश्यकता होती है।)
वमन (उपचारात्मक उल्टी)
इस उपचार का प्रयोग तब किया जाता है जब फ़ेफड़े मे संकुलनता होती है जिसके कारण बार-बार श्वासनली-शोथ, खाँसी, ठंड या दमा के दौरे आते हैंI यह औषधियुक्त उल्टी चिकित्सा है जो शरीर एवं श्वास-नली में एकत्रित कफ (दोषों में से एक) विषों को दूर करता है। यह उन लोगों को दिया जाता है जिनमें उच्च कफ असंतुलन पाया जाता है। इस चिकित्सा का उद्देश्य आधिक्य कफ से छूटकारा पाने हेतु उल्टी के लिये प्रवृत्त कराना है। मुलैठी एवं मधु का बना हुआ एक पेय या पिच्छाक्ष के जड़ की चाय रोगी को दी जाती है। (अन्य प्रयुक्त पदार्थ नमक एवं इलायची) जीभ रगड़कर उल्टी के लिये प्रेरित किया जाता है।
4-8 उल्टी का लक्ष्य रहता है। उल्टी के बाद रोगी बहुत आराम महसूस करता है। शिरानाल की सफाई के साथ अधिकांश संकुलता, घरघराहट एवं श्वासहीनता गायब हो जाती है। उपचारात्मक उल्टी का प्रयोग खाँसी, ठंड, दमा के लक्षण, ज्वर,मिचली, भूख की कमी, रक्तहीनता, विषाक्तता, चर्म रोग, मधुमेह, लसीका के अवरोध, चिरकालिक अजीर्ण, शोफ (सूजन), मिर्गी (दौरे के दौरान), चिरकालिक शिरानाल की समस्या, चिरकालिक प्रत्यूर्जता, परागज ज्वर, श्वेत्कुष्ठ, त्वचा रोग, उच्च अम्लता, मोटापा, मनोवैज्ञानिक विकार एवं गल्तुण्डिका-शोथ के बार-बार होनेवाले दौरे आदि के लिये किया जाता है। वमन के बाद, विश्राम, निराहार रहने एवं स्वभाविक इच्छाएँ (अर्थात मूत्र त्याग, मलत्याग, वायु विकार, छींक, खाँसी) को नहीं दबाने की सलाह दी जाती है। यदि वमन का उचित ढ़ंग से प्रयोग किया जाता है, तो व्यक्ति को फ़ेंफड़े में आराम महसूस करेगा, मुक्त होकर श्वास ले पायेगा, सीने में हल्कापन, स्वच्छ विचार, एक स्पष्ट आवाज, एक अच्छी भूख होगी, एवं संकुलता के सभी लक्षण समाप्त हो जायेंगे।
विरेचन (परिष्करण चिकित्सा)
जब पित्ताशय, यकृत, एवं छोटी आँत से आधिक्य पित्त स्रावित एवं वहाँ जमा होता है तो इसकी परिणति फुन्सी, त्वचा के जलन, मुँहासे, चिरकालिक ज्वर के दौरे, पैत्तिक उल्टी, मिचली एवं पीलिया के रूप में होती है। विरेचन एक औषधियुक्त परिष्करण चिकित्सा है जो शरीर से पित्त विषजीव को हटाता है, यह जठरांत्र पथ का पूर्णतया शोधन करता है एवं रक्त विषजीव का शुद्धिकरण करता है। विरेचन स्वेद ग्रंथियों, छोटी आँत, मलाशय, वृक्क, पेट, यकृत एवं प्लीहा का शोधन करता है। विभिन्न उत्कृष्ट जड़ी-बूटियाँ विरेचक-औषधि के रूप में प्रयुक्त होती हैं। इनमें रंगलता, आलूबुखारा, चोकर, अलसी का भूसी, दुग्धतिक्ता का जड़, रेचक स्निग्धजीर का बीज, गाय का दूध, नमक, अरंडी का तेल, किशमिश एवं आमरस शामिल हैं। इन विरेचक-औषधियों का प्रयोग करने पर सीमित आहार का पालन करना महत्वपूर्ण है। यह बिना पक्षीय प्रभाव के एक सुरक्षित प्रक्रिया है। विरेचन के लाभ चिरकालिक ज्वर, मधुमेह, दमा, चर्म विकार जैसे कि विसर्पिका, शरीर के निचले हिस्से में पक्षाघात, आंशिक पक्षाघात, जोड़ों की बीमारी, पाचन संबंधी बीमारी,कब्ज, उच्च अम्लता, श्वेत कुष्ठ, त्वचा रोग, सिरदर्द, बवासीर, उदरीय अर्बुद, कृमि, गठिया, पीलिया, जठरांत्रिय समस्याएँ, उद्दीप्य आन्त्र सहलक्षण, श्लीपद एवं स्त्रीरोगों को जड़ से नष्ट करने में मदद करती हैं। विरेचक अत्यधिक पित्त की समस्या का पूर्णत: उपचार करता है। जब विरेचकों का प्रयोग किया जाता है, तो मरीज को ऐसा भोजन नहीं करना चाहिये जो प्रबल शरीरी द्रव को बढ़ा देता है या तीनों शरीरी द्रव को असंतुलित कर देता है।
बस्ती(एनीमा)
बस्ती(एनीमा) सभी पंचकर्म उपचार की जननी है क्योंकि यह सभी 3 दोषों, वात, पित्त एवं कफ द्वारा एकत्रित जीवविषों को मलाशय से बाहर निकालता है। औषधियुक्त एनीमा का प्रयोग विभिन्न विशेष कारणों के लिये किया जाता है। सामान्य रूप से, इस उपचार का प्रयोग आँत नली से ढ़ीले दोषों को साफ करने के लिये किया जाता है। आयुर्वेद में सूचीबद्ध लगभग 100 विशेष एनीमा हैं। वस्तिकर्म के अन्तर्गत औषधियुक्त पदार्थों जैसे कि तिल का तेल, पिच्छाक्ष का तेल या अन्य जड़ीयुक्त काढ़ा का एक द्रव माध्यम के द्वारा मलाशय में प्रयोग करना है। वस्ति वात विकार का सबसे प्रभावकारी उपचार है। यह सूजन, चिरकालिक ज्वर, साधारण जुकाम, यौन रोग, गुर्दे में पत्थर, हृदय पीड़ा, उल्टी, पीठ-दर्द, गर्दन-दर्द, उच्च अम्लता, आंशिक पक्षाघात, शरीर के निचले हिस्से में पक्षघात, बृहदांत्र-शोथ, स्वास्थ्यलाभ, ग्रैव स्पॉन्डिलोसिस, उद्दीप्य आन्त्र सहलक्षण, कब्ज, पाचन विकार, यकृत में वृद्धि, प्लीहा में वृद्धि, मोटापा, बवासीर, जनन-अक्षमता, साइटिका एवं जोड़ों के अन्य दर्द को कम करता है। अनेक अन्य वात विकार जैसे कि संधिशोथ, आमवात, गठिया, मांशपेशियों में ऐंठन एवं सिरदर्द का भी उपचार वस्ति के द्वारा हो सकता है। आयुर्वेद में वात से संबंधित लगभग 80 विकार है। उनमे से लभग 80 प्रतिशत का उपचार औषधियुक्त एनीमा के प्रयोग के द्वारा किया जा सकता है। वात मुख्य रूप से बड़ी आँत में स्थित है, लेकिन अस्थि ऊतक भी वात के स्थान हैंI इसलिये गुदा (मलाशय) के द्वारा औषधि का प्रयोग अस्थि ऊतक को प्रभावित करता है। मलाशय की श्लेषमा झिल्ली अस्थि के बाह्य आवरण से संबंधित है जो अस्थियों का पोषण करती है। इसलिये गुदा से किसी भी औषधि का प्रयोग करने पर वह गहरे ऊतकों जैसे कि अस्थियों में जाती हैं एवं वात विकार को दूर करती है।
नास्य (नाक की सफाई)
नाक मस्तिष्क का द्वारमार्ग है और यह चेतना का भी द्वारमार्ग है। नाक के द्वारा औषधि का प्रयोग नास्य कहलाता है। शिरानाल,गला, नाक या सिर के हिस्सों में शरीरी द्रव के आधिक्य को निकटतम संभव छिद्र नाक के माध्यम से निकाल दिया जाता है। तंत्रिका ऊर्जा के रूप में जीवन शक्ति, प्राण, नाक द्वारा अंदर लिये गये साँस से शरीर में प्रवेश करता है। प्राण मस्तिष्क में रहता है एवं संवेदक तथा प्रेरक पेशी को कायम रखता है। प्राण मानसिक क्रिया-कलापों, स्मरण, ध्यान एवं बौद्धिक क्रियाओं को भी संचालित करता है। असंतुलित प्राण इन सभी क्रियाओं में अपूर्ण कार्य उत्पन्न करता है एवं सिरदर्द, ऐंठन, स्मरणहीनता एवं लघुकृत संवेदक अवबोधन पैदा करता है। नास्य के अन्तर्गत सिर तथा गर्दन के हिस्सों में जमा हुये कफ जीवविष को साफ करने के लिये औषधियुक्त तेल का नाक से होकर प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्गत उबलते हुये पानी में भिंगोये हुये औषधियुक्त जड़ी-बूटियों से निकलने वाले भाप को अंदर साँस लेना भी शामिल है। व्यक्ति की चिकित्सा स्थिति के आधार पर नास्य के के द्वारा त्रिशाखी तंत्रिकाशूल, बेल का पक्षाघात, स्मरण एवं दृष्टिशक्ति में सुधार, अनिद्रा, चेहरे में से आधिक्य अति रंजकतायुक्त श्लेष्मा की समाप्ति, समय से पूर्व बाल पकना, आवाज में स्पष्टता, विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले सिरदर्द, आंशिक पक्षाघात, गन्ध एवं स्वाद में कमी, नाक का सूखना, कर्कशता, अकड़ा हुआ कंधा, अधकपारी, गर्दन का कड़ापन, नासीय प्रत्यूर्जता, नासीय पुर्वंगक, तंत्रिका संबंधी दुष्क्रिया, शरीर के निचले हिस्से में पक्षाघात, शिरानालशोथ के उपचार में लाभ शामिल हैं। नास्य के द्वारा श्वसन क्रिया में भी सुधार लाया जा सकता है। नास्य के द्वारा श्वसन मार्ग में अवरूद्ध भावनाओं को मुक्त किया जायेगा। यह उपचार भावनाओं को खोलने में मदद करेगाI भावनाओं के मुक्त होने से श्वसन पद्धति भी बदल जायेगी।
रक्त मोक्षण (रक्त बहने देना)
रक्त बहने देने का प्रयोग जठरांत्र पथ के द्वारा रक्तप्रवाह में अवशोषित जीवविष को बाहर निकालने के लिये किया जाता है। जठरांत्र पथ में मौजूद जीवविष रक्त में अवशोषित हो जाते हैं एवं संपूर्ण शरीर में उनका परिसंचरण होता है। बार-बार होने वाले संक्रमण, उच्च तनाव एवं कुछ अन्य परिसंचरणात्मक स्थितियों का यह एक मूल कारण है। इसके अन्तर्गत बारंबार होने वाले चर्म रोगों के हमले जैसे कि पित्ती, फुन्सी, विसर्पिका, खाज, मुँहासे, खुजली, श्वेत कुष्ठ, चिरकालिक खुजलाहट या शीतपित्त शामिल हैं। इन स्थितियों में, आंतरिक औषधि के साथ-साथ जीवविष का निष्कासन एवं रक्त का शुद्धिकरण आवश्यक है। रक्त को बहाना विवर्द्धित यकृत, प्लीहा एवं गठिया की स्थितियों के लिये भी बताया जाता है। यकृत में असंगठित लाल रक्त कोशिकाओं के द्वारा पित्त तैयार होता हैI पित्त एवम रक्त का एक घनिष्ठ संबंध है। रक्त मोक्षण प्रक्रिया रक्त को शुद्ध करती है। रक्त को को बहाना प्लीहा को जिवविषरोधी पदार्थ उत्पन्न करने के लिये भी उत्तेजित करता है जिससे जो हमारे प्रतिरक्षी तंत्र को उत्तेजित करने में मदद करता है।जीवविष को निष्प्रभावित किया जाता है जिससे कई रक्तजनित बीमारियों का मूल उपचार संभव होता है। कुछ पदार्थ जैसे कि चीनी, नमक, खमीरयुक्त दही, खट्टे स्वाद वाले खाद पदार्थ एवं अल्कोहल रक्त के लिये जीवविष हैं। कुछ रक्त की बीमारियों में रक्त को शुद्ध रखने के लिये इन पदार्थों से परहेज करना चाहिये। रक्त मोक्षण प्रक्रिया रक्त साफ करने के लिये है एवं केवल असामान्य स्थितियों में ही सुझाया जाती है। सामान्य पन्चकर्म के दौरान इसकी सलाह नहीं दी जाती है। अधिकांश आयुर्वेद केन्द्र रक्त की सफाई में संक्रमण के अत्यधिक खतरे के कारण रक्त मोक्षण नहीं प्रदान करते हैं। हमारे योग पाठ्यक्रम में यह पंचकर्म कार्यक्रम का हिस्सा भी नहीं होगा।
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